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अष्टाध्यायी 1.2.25

🔥 *तृषिमृषिकृशेः काश्यपस्य।1.2.25*
🔥 प वि:- तृषि-मृषि-कृशेः 5.1। काश्यपस्य 6.1।
🔥 अनुवृत्ति: - सेट् क्त्वा वा कित् न।
🔥 अर्थ: - तृषिमृषिकृशेः धातुभ्यो परो सेट् क्त्वाप्रत्ययो विकल्पेन किद्वद् न भवति, काश्यपस्याचार्यस्य मतेन। 
🔥 आर्यभाषा: - तृषि-मृषि -कृशि धातुओं से परे इट् आगमवाला क्त्वा प्रत्यय विकल्प से किद्वद् नहीं होता है।
तृष्+क्त्वा। तृष्+इट्+त्वा। तृषित्वा। यहाँ किद्वत् होने से अंग को गुण नहीं होता।
विकल्प में किद्वद् नहीं होता। अतः *तर्षित्वा* हो जाता है,  *पुगन्तलघूपधस्य च* सूत्र से।

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