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Showing posts from December, 2017

अष्टाध्यायी सूत्र प्रकार

🔥 *अष्टाध्याय्याः सूत्राणां विभागाः* अष्टाध्यायी में सभी सूत्र सात प्रकार के हैं:- संज्ञापरिभाषाविधिनिषेधनियमातिदेशाधिकाराख्यानि सप्तविधानि सूत्राणि भवन्ति। 1. *संज्ञा सूत्र:-* सम्यग् जानीयुर्यया सा संज्ञा।  उदाहरण: - वृद्धिरादैच् 1.1.1। 2. *परिभाषा सूत्रम्:-* परितः सर्वतो भाष्यन्ते नियमा याभिस्ताः परिभाषाः।  उदाहरण: - इको गुणवृद्धिः।  3. *विधिः सूत्र:-* यो विधीयते स विधिर्विधानं वा।  उदाहरण: - सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु। 4. *निषेधं सूत्रम्:-* निषिध्यन्ते निवार्यन्ते कार्याणि यैस्ते निषेधाः।  उदाहरण: - न धातुलोपे आर्द्धधातुके।  5. *नियमं सूत्रम्:-* नियम्यन्ते निश्चीयन्ते प्रयोगाः यैस्ते नियमाः।  उदाहरण: - अनुदात्तङित् आत्मनेपदम्। 6. *अतिदेशं सूत्रम्:-* अतिदिश्यन्ते तुल्यतया विधीयन्ते कार्याणि यैस्ते अतिदेशाः।  उदाहरण: - आद्यन्तवदेकस्मिन्।  7. *अधिकारं सूत्रम्:-* अधिक्रियन्ते पदार्था यैस्ते अधिकाराः। उदाहरण: - कारके।  🔥 *आर्यभाषायाम्* जिससे अच्छेप्रकार जाना जाये वह *संज्ञा* कहाती है। जैसे *वृद्धिरादैच्* । जिनसे सब प्रकार नियमों की स्थिरता की जाये वे *परिभाषा* सूत्र कहात

एध धातु आत्मनेपदी

🔥 एधँ वृद्धौ , भ्वादि गण, उदात्त, अनुदात्त(आत्मनेपदी) 1. *लट् लकार* एधते, एधेते , एधन्ते।  एधसे, एधेथे , एधध्वे। एधे, एधावहे , एधामहे। 2. *लिट् लकार* एधाञ्चक्रे , एधाञ्चक्राते , एधाञ्चक्रिरे। एधाञ्चकृषे , एधाञ्चक्राथे , एधाञ्चकृढ्वे। एधाञ्चक्रे , एधाञ्चक्रवहे , एधाञ्चक्रमहे।  3. *लुट् लकार* एधिता , एधितारौ , एधितारः।  एधितासे , एधिताथे , एधिताध्वे।  एधिताहे , एधितास्वहे , एधितास्महे।  4. *लृट् लकार* एधिष्यते , एधिष्येते , एधिष्यन्ते। एधिष्यसे , एधिष्येथे , एधिष्यध्वे। एधिष्ये , एधिष्यवहे , एधिष्यमहे। 5. *लेट् लकार* एधिषातै , एधिषैते , एधिषैन्ते। एधिषासै ,  एधिषैथे , एधिषाध्वै।  एधिषै , एधिषावहै , एधिषामहै।  6. *लोट् लकार* एधताम्  ,एधेताम् , एधन्ताम्।  एधस्व , एधेथाम् , एधध्वम्। एधै , एधावहै , एधामहै। 7. *लङ् लकार* ऐधित , ऐधेताम् , ऐधन्त। ऐधथाः , ऐधेथाम् , ऐधध्वम्। ऐधे , ऐधावहि , ऐधामहि। 8. *लिङ् लकार*        *क. विधिलिङ् :-* एधेत , एधेताम् , एधेरन्। एधेथाः , एधेयाथाम् , एधेध्वम्। एधेय , एधेवहि , एधेमहि।           *ख. आशीष् :-* एधिषीष्ट , एधिषीयास्ताम

अष्टाध्यायी और इतिहास

*अष्टाध्यायी* एक ऐतिहासिक ग्रन्थ :- पाणिनीमुनिकृत अष्टाध्यायी एक व्याकरणग्रन्थ है। इसमें सम्पूर्ण वैदिक व लौकिक व्याकरण *सूत्ररूप* में समाहित है। तथा इसको पढ़कर व्यक्ति अत्यल्प काल में ही एक उत्तमकोटि का संस्कृतभाषाविद् व अन्यभाषाओं की सूक्ष्मता को समझ सकता है।  इसमें *गौणरूप से इतिहास* भी समाया हुआ है।जिसकी सहायता से स्वर्णिम भारतीय इतिहास को लिखने में सहायता मिल सकती है।   *विशेषकर नवबौद्घों के दर्पभञ्जन में ,जो आर्य-अनार्य नामक कल्पना पर विश्वास करते हैं और समाज में फूट डाल रहे हैं।*

प्राचीन भारतीय वैयाकरण

*प्राचीनाः भारतीयाः वैयाकरणाः* मूलनिवासी नामक गप्पी जमात कहती है कि भारत में आर्यों ने लूट घसोट की। *परन्तु देखिये भारत में कितने महान वैयाकरण हुये हैं!* *जिन्होंने व्याकरण  के क्षेत्र में ही बहुत कार्य किया।* व्याकरणशास्त्र के इतिहास के अनुसार अष्टाध्यायी के प्रवक्ता *पाणिनी मुनि से पूर्ववर्ती निम्नलिखित व्याकरणशास्त्र* के 25 प्रमुख आचार्य माने गये हैं। 1. महेश्वर (शिव  ) 2. इन्द्र।  3. वायु।  4. भारद्वाज।  5. भागुरि। 6. पौष्करसादि।  7. चारायण।  8. काशकृत्स्न।  9. शन्तनु।  10. वैयाघ्रपद्य। 11. माध्यन्दिनि।  12. रौढ़ि।  13. शौनकि।  14. गौतम।  15. व्याडि।  16. आपिशालि। *(3000 विक्रम सं. पूर्व)* 17. काश्यप।  18. गार्ग्य।  19. गालव। 20. चाक्रवर्मण। *(3000 वि. पूर्व)* 21. भरद्वाज।  22. शाकटायन। *(3100 वि. पूर्व) 23. शाकल्य। 24. सेनक।  25. स्फोटायन। *(2950 वि. पूर्व)* पाणिनी मुनि ने अपनी अष्टाध्यायी नामक कृति में 10 वैयाकरणो का उल्लेख किया है व उनके व्याकरण-मत का भी वर्णन किया है। *अब मूलनिवासियों का बताना चाहिये कि ये आर्य थे या अनार्य ?*

दश लकार 10 लकार

🔥 *भू धातु* *परस्मैपद* 🔥 1. *लट् लकार* भवति ,  भवतः ,   भवन्ति। भवसि ,  भवथः,   भवथ।  भवामि,  भवावः ,  भवामः। 2. *लिट् लकार* बभूव,      बभूवतुः,      बभूवुः। बभविथ,  बभूवथुः ,     बभूव। बभूव ,     बभूविव ,     बभूविम। 3. *लुट् लकार* भविता , भवितारौ , भवितारः। भवितासि,भवितस्थः,भवितस्थ।  भवितास्मि,भवितास्वः,भवितास्मः।  4. *लृट् लकार* भविष्यति ,भविष्यतः,भविष्यन्ति। भविष्यसि, भविष्यथः, भविष्यथ।  भविष्यामि,भविष्यावः,भविष्यामः।  5. *लेट् लकार* भाविषाद् , भाविषातः, भाविषान्। भाविसाः , भाविषाथः , भाविषाथ। भाविषाम् , भाविषाव, भाविषाम। 6. *लोट् लकार* भवतु , भवताम् , भवन्तु।  भव,    भवतम् , भवत। भवानि , भवाव , भवाम।  7. *लङ् लकार* अभवत् , अभवताम्, अभवन्। अभवः , अभवतम् , अभवत। अभवम् , अभवाव , अभवाम।  8. *लिङ् लकार* *क)*चाहिये के अर्थ में :- भवेत्, भवेताम्, भवेयुः।  भवेः , भवेतम् , भवेत।  भवेयम् , भवेव , भवेम।  *ख)* आशीर्वाद में :- भूयात् , भूयास्ताम् , भूयासुः।  भूयाः , भूयास्तम् ,  भूयास्त।  भूयासम्, भूयास्व , भूयास्म। 9. *लुङ् लकार* अभूत् , अभूताम् ,अभूवन्। 

अष्टाध्यायी 1.3.85

🔥 *विभाषाsकर्मकात्।1.3.85* 🔥 प वि:- विभाषा 1.1। अकर्मकात् 5.1। 🔥 अनु.:- उपात्, रमः। 🔥 अर्थ: - अकर्मकक्रियावचनाद् उप-परस्माद् रमः धातोः कर्तरि विकल्पेन परस्मैपदं भवति। 🔥 आर्यभाषा: - अकर्मक क्रियावाची उप-उपसर्गपूर्वक रम् धातु से कर्तृवाच्य में विकल्प से परस्मैपद होता है।  🔥 उदाहरण: - यावद्भुक्तं *उपरमति।* यावद्भुक्तं *उपरमते।* प्रत्येक भोजन से निवृत्त होता है, भोजन नहीं करता है।

अष्टाध्यायी 1.3.84

🔥 *उपाच्च।1.3.84* 🔥 प वि:- उपात् 5.1। च।  🔥 अनु.:- रमः।  🔥 अर्थ: - उप-परस्मात् रमः धातोः कर्तरि परस्मैपदं भवति।  🔥 उदाहरण: - देवदत्तम् *उपरमति।* देवदत्त को हटाता है।

अष्टाध्यायी 1.3.83

🔥 *व्याङ्परिभ्यो रमः।1.3.83* 🔥 प वि:- वि-आङ्-परिभ्यः 5.3। रमः 5.1।  🔥 अर्थ: - वि-आङ्-परि-उपसर्गपूर्वक रम् धातु से कर्तृवाच्य में परस्मैपद होता है।  🔥 उदाहरण: - *विरमति।* ठहरता है।

अष्टाध्यायी 1.3.82

🔥 *परेर्मृषः।1.3.82* 🔥 प वि: परेः 5.1। मृषः 5.1। 🔥 अर्थ: - परि-उपसर्गपूर्वाद् मृषः धातोः कर्तरि परस्मैपदं भवति।  🔥 आर्यभाषा: - परि-उपसर्गपूर्वक मृष् धातु से कर्तृवाच्य में परस्मैपद होता है।  🔥 उदाहरण: - *परिमृष्यति।* सब ओर से सुख दुःख आदि द्वन्द्वों को सहन करता है।

अष्टाध्यायी 1.3.81

🔥 *प्राद् वहः।1.3.81* 🔥 प वि:- प्राद् 5.1। वहः 5.1। 🔥 अर्थ: - प्र-उपसर्गपूर्वाद् वहः धातोः कर्तरि परस्मैपदं भवति।  🔥 आर्यभाषा: - प्र-उपसर्गपूर्वक वह् धातु से कर्तृवाच्य में परस्मैपद होता है। 🔥 उदाहरण: - *प्रवहति।*जोर से बहता है।

अष्टाध्यायी 1.3.80

🔥 *अभिप्रत्यतिभ्यः क्षिपः।1.3.80* 🔥 प वि:- अभि-प्रति-अतिभ्सः 5.3। क्षिपः 5.1। 🔥 अर्थ: - अभि-प्रति-अति- परस्मात् क्षिपः धातोः परस्मैपदं भवति।  🔥 आर्यभाषा: - अभि-प्रति-अति -उपसर्गपूर्वक क्षिप् धातु से कर्तृवाच्य में परस्मैपद होता है।  🔥 उदाहरण: - *अभिक्षिपति।* सामने फेंकता है। *प्रतिक्षिपति।* उल्टा फेंकता है। *अतिक्षिपति।*

अष्टाध्यायी 1.3.79

🔥 *अनुपराभ्यां कृञः।1.3.79* 🔥 प वि:- अनु-पराभ्याम् 5.2। कृञः 5.1। 🔥 अनु.:- कर्तरि,  परस्मैपदम्।  🔥 अर्थ: - अनु-पराभ्यां परस्मात् कृञः धातोः कर्तरि परस्मैपदं भवति।  🔥 आर्यभाषा: - अनु-पर -उपसर्गपूर्वक कृञ् धातु से कर्तृवाच्य में परस्मैपद होता है।  🔥 उदाहरण: - *अनुकरोति* । *पराकरोति।* अनु+कृ+लट्। अनु+कर् +उ+तिप्। अनु+कर् +ओ +ति। अनुकरोति।

अष्टाध्यायी 1.3.78

🔥 *शेषात् कर्तरि परस्मैपदम्।1.3.78* 🔥 प वि:- शेषात् 5.1। कर्तरि 7.1। परस्मैपदम् 1.1। 🔥 अर्थ: - शेषाद् धातोः कर्तरि परस्मैपदं भवति।  🔥 आर्यभाषा: - पूर्वोक्त से शेष अन्य धातुओं से कर्तृवाच्य में परस्मैपद है।  🔥 उदाहरण: - *याति* जाता है।  *प्रविशति* :- प्रवेश करता है। 🔥 विशेष:- 1. *अनुदात्तङित आत्मनेपदम्* 1.3.12 से जो आत्मनेपद का विधान किया गया है , भू या और वा धातु उदात्तेत् होने से उससे *शेष* है अतः इनसे पहस्मैपद होता है। 2. *नेर्विशः* 1.3.17 से नि उपसर्गपूर्वक विश् धातु से आत्मनेपद का विधान किया गया है। प्र उपसर्ग से परे विश् धातु अन्य(शेष) है। अतः उससे *परस्मैपद*होता है।

अष्टाध्यायी 1.2.34

🔥 *यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु।1.2.34* 🔥 प वि:- यज्ञकर्मणि 7.1। अजप-न्यूङ्ख-सामसु 7.3।  🔥 अनुवृत्ति: - एकश्रुति।  🔥 अर्थ: - यज्ञस्य कर्मेति यज्ञकर्म, तस्मिन्- यज्ञकर्मणि। जपश्च न्यूङ्खश्च साम च तानि- जपन्यूङ्खसामानीति, अजपन्यूङ्खसामानि, तेषु-अजपन्यूङ्खसामसु। यज्ञकर्मणि , उदात्तानुदात्तस्वरितानामेकश्रुतिस्वरो भवति, जपन्यूङ्खसामानि वर्जयित्वा।  🔥 आर्यभाषा: - यज्ञकर्म में उदात्त अनुदात्त व स्वरित का एकश्रुति स्वर होता है, जप न्यूङ्ख और सामवेद को छोड़कर।

अष्टाध्यायी 1.2.33

🔥 *एकश्रुति दूरात् सम्बुद्धौ।1.2.33* 🔥 प वि:- एकश्रुति 1.1। दूरात् 5.1। सम्बुद्धौ 7.1।  🔥 अर्थ: - एकाश्रुतिर्यस्य तत्-एकश्रुति।दूरात् सम्बोधने उदात्तानुदात्तस्वरितानामेकश्रुतिस्वरो भवति। 🔥 आर्यभाषा: - किसी को दूर से सम्बोधित करने वाले वाक्य में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित का एकश्रुति स्वर होता है।  🔥 उदाहरण: - आगच्छ भो माणवक देवगत्त3।

अष्टाध्यायी 1.2.32

🔥 *तस्यादित उदात्तमर्धह्रस्वम्।1.2.32* 🔥 प वि:- तस्य 6.1।  आदितः। उदात्तम् 1.1। ह्रस्वम् 1.1। 🔥 अर्थ: - *अर्धं ह्रस्वस्येति अर्धह्रस्वम्* ।  तस्योदात्तमनुदात्तसमाहारस्य स्वरितस्वरस्यादौ अर्धह्रस्वमात्रम् उदात्तं शेषं चानुदात्तं भवति।  🔥 उस उदात्तानुदात्त के समाहार स्वरित की आधीह्रस्वमात्रा उदात्त व शेष मात्रा अनुदात्त होती है। 🔥 उदाहरण: - *कन्या॑* अत्र दीर्घ आकारस्य अर्ध ह्रस्व मात्रा उदात्तम् व शेष डेढ़ मात्रा अनुदात्त है।

अष्टाध्यायी 1.2.31

🔥 *समाहारः स्वरितः।1.2.31* 🔥 प वि:- अच्। 🔥 अर्थ: - उदात्तानुदात्तयोः यः समाहारः अच् सः स्वरित-संज्ञको भवति।  🔥 उदाहरण: - *क॑*  ।  *स॑*

अष्टाध्यायी 1.2.30

🔥 *नीचैरनुदात्तः। 1.2.30* 🔥 प वि:- नीचैः।  अनुदात्तः 1.1। 🔥 अर्थ: - कण्ठादीनां स्थानानां नीचैर्भागे निष्पन्नो अच् अनुदात्त- संज्ञको भवति। 🔥 उदाहरण: - *क॒* । *ट॒*  ।

अष्टाध्यायी 1.2.29

🔥 *उच्चैरुदात्त।1.2.29* 🔥 प वि:- उच्चैः।  उदात्तः 1.1।  🔥 अनुवृत्ति: - अच्। 🔥 अर्थ: - कण्ठादीनां स्थानानामुच्चैर्भागे निष्पन्नो अच् उदात्त- संज्ञको भवति।

अष्टाध्यायी 1.2.28

🔥 *अचश्च।1.2.28* 🔥 प वि:- अचः 6.1। च।  🔥 अनुवृत्ति: - अच् ह्रस्व-दीर्घ-प्लुतः। 🔥 अर्थ: - ह्रस्व,  दीर्घ , प्लुत इति विधीयमानोsच् सो अच् स्थाने एव भवति।  🔥 आर्यभाषा: - ह्रस्व हो जाये, दीर्घ हो जाये या प्लुत हो जाये जब ऐसा कहा जाये तो वह अच् के स्थान में ही होता है। यह *परिभाषा सूत्र* है।  🔥 उदाहरण: - उप+सु +गो+सु। उपगो। उपगु। यहाँ *ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य*  से ओकार के स्थान में *एच् इग्घ्रस्वादेशे* से उकार होता है।

अष्टाध्यायी 1.2.27

🔥 *ऊकालोsज् ह्रस्वदीर्घप्लुतः।1.2.27* 🔥 प वि:- उ-ऊ-उ3 कालः 1.1। अच् 1.1। ह्रस्व-दीर्घ-प्लुतः 1.1। 🔥 अर्थ: - उ-ऊ-उ3 इत्येवं कालोsज् ह्रस्व- दीर्घ-  प्लुतः संज्ञकः भवति। 🔥 आर्यभाषा: - उ , ऊ तथा उ3 के काल के समान काल वाले अच् की क्रमशः ह्रस्व दीर्घ प्लुतः संज्ञा होती है।  🔥 उदाहरण: - ह्रस्व।        दीर्घ।      प्लुत।  अ।           आ।       अ3।  इ।             ई।         इ3।  उ।             ऊ।        उ3। ऋ।            ऋ2।       ऋ3।  लृ।             ❌         लृ3।  ❌             ए।          ए3। ❌              ऐ।           ऐ3। ❌             ओ।        ओ3।  ❌              औ।        औ3। = 5।            =8।          =9।             ➡ = 5+8+9= 22 स्वराः।

अष्टाध्यायी 1.2.26

🔥 *रलो व्युपधाद् हलादेः सँश्च।1.2.26* 🔥 प वि:- रलः 5.1। व्युपधात् 5.1। हलादेः 5.1। सन् 1.1। च। 🔥 अनुवृत्ति: - सेट् क्त्वा वा कित् न। 🔥 अर्थ: - उश्च इश्च तौ -वी। वी यस्य उपधा सः व्युपधः। तस्मात्- व्युपधात्।  हल् आदिरेयेषां सः हलादिः। तस्मात्-  हलादेः। रलन्ताद् व्युधात् हलादेर्धातोः परः सेट् क्त्वा सन् च प्रत्ययौ विकल्पेन किद्वत् न भवति। 🔥  आर्यभाषा: - रलन्त व्युपधा व हलादि वाली धातु से परे इट् आगमवाला क्त्वा प्रत्यय विकल्प से किद्वद् नहीं होता।  🔥 उदाहरण: -द्युत्+सन्। द्युत्+द्युत्+सन्।  दिद्युतिषते। दिद्योतिषते।

अष्टाध्यायी 1.2.25

🔥 *तृषिमृषिकृशेः काश्यपस्य।1.2.25* 🔥 प वि:- तृषि-मृषि-कृशेः 5.1। काश्यपस्य 6.1। 🔥 अनुवृत्ति: - सेट् क्त्वा वा कित् न। 🔥 अर्थ: - तृषिमृषिकृशेः धातुभ्यो परो सेट् क्त्वाप्रत्ययो विकल्पेन किद्वद् न भवति, काश्यपस्याचार्यस्य मतेन।  🔥 आर्यभाषा: - तृषि-मृषि -कृशि धातुओं से परे इट् आगमवाला क्त्वा प्रत्यय विकल्प से किद्वद् नहीं होता है। तृष्+क्त्वा। तृष्+इट्+त्वा। तृषित्वा। यहाँ किद्वत् होने से अंग को गुण नहीं होता। विकल्प में किद्वद् नहीं होता। अतः *तर्षित्वा* हो जाता है,  *पुगन्तलघूपधस्य च* सूत्र से।

अष्टाध्यायी 1.2.24

🔥 *वञ्चिलुञ्च्यृतश्च।1.2.24* 🔥 अनुवृत्ति: - सेट् क्त्वा वा कित्।  🔥 अर्थ: - वञ्चिलुञ्च्यृतिभ्यो धातोः परो सेट् क्त्वा प्रत्यय विकल्पेन किद्वद्  भवति। 🔥 आर्यभाषा: - वञ्चि, लुञ्चि व ऋत् धातुओं से परे इट् आगमवाला क्त्वा प्रत्यय विकल्प से किद्वत् होता है।  🔥 उदाहरण: - *वचित्वा*।(ठगकर) वञ्च +क्त्वा। वञ्च+इट् +क्त्वा। व0च+इ+त्वा। वचित्वा।  विकल्प से किद्वद् होने से विकल्प से *अनुनासिकलोप* होता है। पक्ष में *वञ्च्तित्वा*

अष्टाध्यायी 1.2.23

🔥 *नोपधात् थफान्ताद् वा।1.2.23* 🔥 अनुवृत्ति: - सेट् कित् न। 🔥   अर्थ: नकार यस्मिन् उपधा स नोपध। तस्मात्- नोपधात्। थश्च फश्च तौ थफौ। थफावन्ते यस्य स थफान्तः।  तस्मात् -थफान्तात्। नोपधात् थफान्ताद् सेट् क्त्वा प्रत्ययो विकल्पने किद्वद् न भवति।  🔥 आर्यभाषा: नकार जिसकी उपधा में हो वह नोपध। और थकार(थ) जिसके अन्त में तो वह थन्त। तथा फन्त। तथा दोनों अन्त वाले थफान्त।  तो नोपध व थकारान्त और फकारान्त धातु से परे इट् आगमवाला क्त्वा प्रत्यय विकल्प से किद्वद् नहीं होता।  🔥 उदाहरण: - ग्रन्थित्वा। ग्रथित्वा। (ग्रन्थ संदर्भे , क्र्यादिगण)

अष्टाध्यायी 1.2.22

🔥 *पूङः क्त्वा च। 1.2.22* 🔥 प वि:- पूङः 5.1। क्त्वा 1.1। च। 🔥 अनुवृत्ति: - सेट् निष्ठा कित् न। 🔥 अर्थ: - पूङः धातोः परो सेट् निष्ठा क्त्वा च प्रत्ययौ किद्-वत् न भवति।  🔥 आर्यभाषा: - पूङ् धातु से परे इट् आगमवाला निष्ठा व क्त्वा प्रत्यय किद्-वत् नहीं होता। 🔥 उदाहरण: - पूङ्+क्त। पू+त। पो+इट्+त। पव्+इ+त। पवित+सु। पवितः।  इसी प्रकार पवित्वा।

अष्टाध्यायी 1.2.21

🔥 *उदुपधाद् भावादिकर्मणोरन्यतरस्याम्।1.2.21* 🔥 प वि:- उत्-उपधात् 5.1।  भाव-आदिकर्मणो 6.2। अन्यतरस्याम्।  🔥 अनुवृत्ति: - सेट् निष्ठा कित् न। 🔥 अर्थ: - उकार उपधायां यस्य सः-उदुपधः।  तस्माद् -उदुपधात्। उदुपधात् धातोः परो भावे आदिकर्मणि च वर्तमानः सेट् निष्ठा प्रत्ययो विकल्पेन किद्वद् न भवति।  🔥  आर्यभाषा: - उकार जिसकी उपधा में है वह उदुपध कहलाता है। तो ऐसी उकार उपधा वाली धातु से इट् आगमवाला निष्ठा प्रत्यय विकल्प से किद्वत् नहीं होता।  🔥 उदाहरण: - द्युत+क्त= द्युत् +इट्+त= द्योतित +सु=द्योतितम्।  या द्युतितम्। यहाँ भी विकल्प से किद्वत् होने के विकल्प से गुण होता है।

अष्टाध्यायी 1.2.20

🔥 *मृषस्तितिक्षायाम्। 1.2.20* 🔥 प वि:- मृषः 5.1। तितिक्षायाम् 7.1। 🔥 अनुवृत्ति: - न सेट् निष्ठा कित्। 🔥 अर्थ: - तितिक्षार्थे वर्तमानाद् मृषो धातोः परः सेट् निष्ठाप्रत्ययः किद्वद् न भवति।  🔥 आर्यभाषा: - मृष् धातु से परे इट् आगम वाला निष्ठा प्रत्यय किद्वद् नहीं होता। 🔥 उदाहरण: - मर्षितः , मर्षितवान्।  मृष् +क्त। मृष्+इट्+त।  मर्षितः

अष्टाध्यायी 1.2.19

🔥 *निष्ठा शीङ्स्विदिमिदिक्ष्विदिधृषः।1.2.19* 🔥 प वि:- निष्ठा 1.1। शीङ्-स्विद्-मिद्-क्ष्विदि-धृषः 5.1।  🔥 अनुवृत्ति: - न सेट कित्।  🔥 अर्थ: - शीङ्स्विद-मिद्-क्ष्विद्-धृष धातुओं परे इट् आगमवाला निष्ठा(क्त, क्तवतू) प्रत्यय कित् नहीं माना जाता।  🔥 उदाहरण: - शयितः। शीङ्+क्त। शी+इट्+त।शे+इ+त। शयित। शयितः।  यहाँ गुण होता है क्योंकि प्रत्यय किद्वद् नहीं होता।

अष्टाध्यायी 1.2.17

🔥 *स्थाघ्वोरिच्च।1.2.17* 🔥 प वि:- स्थाघ्वोः 6.1। इत् 1.1। च। 🔥 अनुवृत्ति: - सिच् आत्मनेपदेषु कित्। 🔥 अर्थ: - स्था-धातोः घु-सञ्ज्ञाकानां च इकारादेशो भवति। एभ्यः परः सिच् किद्वत् भवति, आत्मनेपदेषु-सञ्ज्ञकेषु परतः। 🔥 आर्यभाषा: - स्था और घु संज्ञक धातुओं को इकारादेश भी होता है। इनसे परे सिच् आत्मनेपदविषय प्रत्यय किद्-वत् होता है।  🔥 उदाहरण: - उपास्थित। स्था +च्लि+लुङ्। स्था+सिच् +लुङ्। अट +स्थि+ 0+ त। अस्थित। उप+अस्थित। उपास्थित।

उदात्त स्वर परिपाटी

मा॒ता रु॒द्राणां॑ दुहि॒ता वसू॑नां॒ स्वसा॑दि॒त्याना॑म॒मृत॑स्य॒ नाभि॑: । प्र नु वो॑चं चिकि॒तुषे॒ जना॑य॒ मा गामना॑गा॒मदि॑तिं वधिष्ट ॥ ऋग्वेद ८.१०१.१५ ॥ ये एक मन्त्र ही बता देता है - गौ को माता उपमार्थ कहा गया है | गौ को माता को कहने का कारण - अमृत का उसकी नाभि में पाया जाना है | साथ में गौ रक्षा और उसकी कभी हत्या नही करनी चाहिए यह बात इस एक मन्त्र से स्पष्ट है |

अष्टाध्यायी 1.2.16

🔥 *विभाषोपयमने।1.2.16* 🔥 प वि:- विभाषा 1.1। उपयमने 7.1।  🔥 अनुवृत्ति:- यम आत्मनेपदेषु सिच् कित्। 🔥 अर्थ: - उपयमनेsर्थे वर्तमानाद् यमो धातोः परो सिच् प्रत्यय विकल्पेन किद्-वद् भवति। 🔥  आर्यभाषा: - विवाह करने अर्थ में वर्तमान यम धातु से परे आत्मनेपदविषयक सिच् प्रत्यय कित्-वद् होता है।  🔥 उदाहरण: - उपायत कन्याम्। उपायँस्त कन्याम् अत्र कित्त्वात् विकल्पेन यमो अनुनासिकस्य लोपो भवति।

अष्टाध्यायी 1.2.15

🔥 *यमो गन्धने।1.2.15* 🔥 अनुवृत्ति: - आत्मनेपदेषु सिच्। 🔥 अर्थ:  - गन्धनेsर्थे यमो धातोः आत्मनेपदेषु सिच् प्रत्यय कित्-वद् भवति। 🔥 आर्यभाषा: - गंधन-अर्थ में विद्यमान यम धातु से परे आत्मनेपद सिच् प्रत्यय किद्-वद् होता है। 🔥 उदाहरण :- यहाँ यम् के मकार का लोप होता है सिच् प्रत्यय के कित् होने से।

अष्टाध्यायी 1.2.14

🔥 *हनः सिच्। 1.2.14* 🔥 प वि:- हनः 5.1। सिच् 1.1। 🔥 अनुवृत्ति: - आत्मनेपदेषु कित्। 🔥 अर्थ: - हनो धातोः परो सिच् प्रत्यय आत्मनेपदेषु किद्-वद् भवति। 🔥 उदाहरण: - आहत।  आङ् +हन्+लुङ्। आ+अट्+हन्+च्लि +त। आ+ह+सिच्+त। आह+स्+त। आह 0 त। आहत।

अष्टाध्यायी 1.2.13

🔥 *वा गमः। 1.2.13* 🔥 प वि:- वा। गमः 5.1। 🔥 अनुवृत्ति: - लिङ्सिचावात्मनेपदेषु झल् कित्। 🔥 अर्थ: - गमो धातोः परो लिङ्सिचावात्मनेपदेषु प्रत्ययौ विकल्पने किद्-वद् भवति।  🔥 उदाहरण: - संगसीष्ट। संगंसीष्ट। सम्+गम्+लिङ्। सम्+गम्+त। सम्+गम्+सीयुट+सुट्+त। संगसीष्ट।  यहाँ *अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्ङिति 6.4.37* यहाँ विकल्प से अनुनासिक लोप नहीं होता।

अष्टाध्यायी 1.2.12

🔥 *उश्च। 1.2.12* 🔥 प वि:- उः 5.1। च।  🔥 अनुवृत्ति: - 'लिङ्सिचावात्मनेपदेषु झल् कित्।  🔥 अर्थ: - ऋकारान्ताद् धातोः परो झलादी लिङ्सिचावात्मनेपदेषु प्रत्ययौ किद्-वद् भवति।  🔥 उदाहरण: - कृसीष्ट।  कृ+लिङ्। कृ+सीयुट्+सुट्+त। कृ+सी+ष्+ट। कृसीष्ट। यहाँ भी कृ को  *सार्वधातुकार्धातुकयोः* से प्राप्त गुण का निषेध होता है।

अष्टाध्यायी 1.2.11

🔥 *लिङ्सिचावात्मनेपदेषु।1.2.11* 🔥 प वि:- लिङ्-सिचौ 2.1। आत्मनेपदेषु 7.1। 🔥 अनुवृत्ति:- इकः हलन्ताच्च झल् कित्। 🔥 अर्थ: - इकः समीपाद् यो हल् तस्माद् परो झलादी लिङ्-सिचौ प्रत्ययौ आत्मनेपदेषु कित्-वत् भवति।  🔥 आर्यभाषा: - इक के समीपवर्ती हल से परे लिङ्-सिच् प्रत्यय आत्मनेपदविषय में किद्-वद् होते हैं। 🔥  उदाहरण:- भित्सीष्ट।  भिद् +लिङ्। भिद् +सीयुट्+त।  भित्सीयु+सुट्+त। भित्सी +ष्+ट। भित्सीष्ट।  यहाँ भी भिद् के इकार को गुण नहीं हुआ कित् होने से।

अष्टाध्यायी 1.2.10

🔥 *हलन्ताच्च।1.2.10* 🔥 प वि:- हल् 1.1। हलन्तात् 5.1। च।  🔥 अनुवृत्ति: - इको झल सन् कित्।  🔥 अर्थ: - इकः समीपाद् यो हल् तस्माद् परोsपि झलादिः सन्-प्रत्यय कित्-वत् भवति। 🔥 आर्यभाषा:- इक् के समीपवर्ती हल से परे भी झलादि सन् प्रत्यय किद्वत् होता है।यहाँ अन्त शब्द समीपवाची है। 🔥 उदाहरण: - बिभित्सति। भिदिँर् +सन्। भिद्+सन्। भिद्+भिद्+स। भि+भित्स +लट्।  बिभित्स +शप्+तिप्। बिभित्सति।  यहाँ भिद् को *पुगन्तलघूपधस्य च* से गुण होता है परंतु *कित्* होने से निषेध हो जाता है। क्ङिति च से।

अष्टाध्यायी 1.2.9

🔥 *इको झल्। 1.1.9* 🔥 प वि:- इकः 5.1। झल् 1.1। 🔥 अनुवृत्ति: - सन्, कित्।  🔥 अर्थ: - इगन्ताद् धातो परो झलादि (अनिट् सन् ) प्रत्यय किद्-वद् भवति।  🔥 आर्यभाषा: - इगन्त धातु से परे झलादि सन् प्रत्यय किद्-वद् भवति। 🔥 उदाहरण: - चिञ्+सन्।  चि+स।चि+चि+स। चिची+स। चिचीष् +शप्+तिप्। चिचीषति। यहाँ कित होने से गुण का निषेध होता है।

अष्टाध्यायी 1.2.8

🔥 *रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छ सँश्च।1.2.8* 🔥 अनुवृत्ति: - कित्, क्त्वा।  🔥 अर्थ: - रुद-विद-मुष-ग्रहि-स्वपि-प्रच्छिभ्यो धातुभ्यो परो 'क्त्वा- सन् ' द्वौ प्रत्ययौ किद्-वद् भवति।  🔥 आर्यभाषा: - रुद आदि धातुओ से परे क्त्वा व सन् प्रत्यय किद्-वद् होते हैं।  🔥 उदाहरण: - रुद्+क्त्वा। रुद्+इट्+क्त्वा। रुदित्वा। यहाँ कित् होने से *क्ङिति च* से *पुगन्तलघूपधस्य च* से प्राप्त गुण का निषेध होता है।  इसी प्रकार सन प्रत्यय में भी गुण-निषेध होता है।