Skip to main content

Posts

Showing posts from February, 2018
*चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है।*      -प्रथमेश आर्य। कः स्विदेकाकी चरति क उ स्विज्जायते पुनः। किंस्विद्धिमस्य भेषजं किं वा ऽऽवपनं महत्॥3॥ सूर्य्य एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः। अग्निर्हिमस्य भेषजं भूमिरावपनं महत्॥4॥ -य॰ अ॰ 23। मं॰ 9। 10॥ (कः स्वि॰) को ह्येकाकी ब्रह्माण्डे चरति कोऽत्र स्वेनैव स्वयं प्रकाशितः सन् भवतीति ? कः पुनः प्रकाशितो जायते ? हिमस्य शीतस्य भेषजमौषधं किमस्ति ? तथा बीजारोपणार्थं महत् क्षेत्त्रमिव किमत्र भवतीति प्रश्नाश्चत्वारः॥3॥ एषां क्रमेणोत्तराणि - ( सूर्य्य एकाकी॰) अस्मिन्संसारे सूर्य्य एकाकी चरति स्वयं प्रकाशमानः सन्नन्यान् सर्वान् लोकान् प्रकाशयति। तस्यैव प्रकाशेन चन्द्रमाः पुनः प्रकाशितो जायते , नहि चन्द्रमसि स्वतः प्रकाशः कश्चिदस्तीति। अग्निर्हिमस्य शीतस्य भेषजमौषधमस्तीति भूमिर्महदावपनं बीजारोपणादेरधिकरणं क्षेत्रं चेति॥4॥ (कः स्वि॰) इस मन्त्र में चार प्रश्न हैं। उन के बीच में से पहला (प्रश्न)-कौन एकाकी अर्थात् अकेला विचरता और अपने प्रकाश से प्रकाशवाला है? (दूसरा)-कौन दूसरे के प्रकाश से प्रकाशित होता है? तीसरा-शीत का औषध क्या है? और चौथ
*देवी देवताओ का यथार्थ* (भाग-2) -  💥प्रथमेश आर्य।  तैंतीस कोटि(प्रकार) देवता :- *त्रया देवा एकादश त्रयास्त्रिशाः सुराधसः।* *बृहस्पतिपुरोहिताः देवस्य सवितुः सवे देवा देवैरन्तु मा।*            -(यजुर्वेद 20.11) भावार्थ:- ये पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशद्युचन्द्रनक्षत्राण्यष्टौ प्राणायदयो दश वायव एकादशो जीवात्मा द्वादश मासा विद्युद्यज्ञश्चैतेषां दिव्यपृथिव्यादीनां पदार्थानां गुणकर्मस्वाभावोपदेशेन सर्वान् मनुष्यानुत्कर्षयन्ति, ते सर्वोपकारका भवन्ति। भावार्थ:- जो पृथिवी , जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र , नक्षत्र ये *आठ* और प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान, नाग, कृकल, कूर्म, देवदत्त, धनञ्जय तथा *ग्यारह* जीवात्मा , *बारह महीने* , बिजुली और यज्ञ *इन तैंतीस* दिव्यगुण वाले पृथिव्यादि पदार्थों के गुण , कर्म , स्वभावेन के उपदेश से सब मनुष्यों की उन्नति करते हैं , वे सर्वोपकारक होते हैं। समस्त शास्त्रों में तेंतीस देवताओं से अभिप्राय उपर्युक्त सब व्यवहार सिद्धि के लिये हैं। सब मनुष्यों को उपासना के योग्य तो एक देव ब्रह्म ही है।उपर्युक्त समस्त लेख में प्रमाण निम्न प्रकार है:- अथ हैनं विदग्धः श
*देवी और देवताओं का यथार्थ*     (भाग-1)       -प्रथमेश आर्य।     नमस्ते मित्रों! *दिवु- क्रीडा-विजिगीषा-व्यवहार-द्युति-मोद-मद-स्वप्न-कान्ति-गतिषु* (दिवादि गण) धातु से *"पचाद्यच्"* से *"अच्"* प्रत्यय अथवा *दिवु-मर्दने* (चुरादिगण) या *दिवु-परिकूजने* (चुरादिगण) धातु से *"अच्"* प्रत्यय के भाग से *"देव"* शब्द सिद्ध होता है। 🔥    *दिव्+अच्= देव्+अ =देव +सु= देवः।* *निरुक्त* में 'देव' शब्द की निरुक्ति इस प्रकार दी है :- *देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा।* (7.4.15) अर्थात् *दान देने वाले, प्रकाशित करने वाले , प्रकाशित होने वाले या द्युस्थानीय को देवता कहते हैं।* देवता दो प्रकार के होते हैं जड़ और चेतन।  जड़ देव उपयोग के योग्य होते हैं।चेतन देव (विद्वान, माता, पिता, आदि ) आदि सत्कार और सेवा के द्वारा प्रसन्न करने योग्य होते हैं। परंतु उपासना के योग्य केवल एक परमात्मा ही है।यदि कहीं अग्नि, इन्द्र , वरुण आदि नामों से देवताओ की स्तुति का वर्णन मिलता है तो वहाँ भी उनके माध्यम से परमात्मा की स्तुति ही अभिप्रेत है। इस
एक बार अब्दुरहमान बिन ओफ ने दावत में मुहम्मद व उनके मित्रों को दावत में बुलाया और मदिरापान करवाया। तब सायंकालीन नमाज का समय हुआ तो उन्होने नमाज पढ़ने हेतु खड़ा कर दिया किन्तु उसने सूरत काफिरू गलत पढ़ी।  फलस्वरूप खुदा ने निम्न आयत उतारी कही गयी:- या अय्यु हल्लजीना आमनू ला तकरबुस्सलाता व अन्तुम सुकारा। :- कुरान पारा 5 रकू 7.4। अर्थात्:- नमाज के अवसरों पर शराब न पियो। नशा इतना हो कि वह समझ सके कि वह मुँह से क्या बोल रहा है तब उस नशे में भी नमाज पढ़ सकते हो।   तफसीर मजहरी पारा 5. पृष्ठ 87। अब एक चर्चा चली यह चली कि शैतानी कार्य्य (मदिरापान) जिन व्यक्तियों ने किया है जीवित या मृत हैं ? उनका क्या होगा? तो तत्काल उच्च न्यायालय (खुदा) से निर्णय होकर आ गया कि :- अर्थात्:- उन लोगों पर कोई गुनाह नहीं जिन्होने शराब पी ली है , जिन्होने अच्छे काम किये हैं और ईमान लाये हैं तथा इसके मध्य उन्होने बह हराम वस्तु खा पी ले और वह उन पर हराम न थी। जीवितों पर भी कोई अपराध न हीं है, जिन्होने हराम होने के पूर्व मदिरापान किया ...... इत्यादि। तफसीर इब्ने कसीर , पारा .7 पृष्ठ 12। अब हम भी इस शराब की चर्
*कुरान में पहले शराब हराम नहीं पर बाद में हराम की गयी* :- प्रथमेश आर्य्य। शराब के सम्बन्ध में जो आदेश कुरान में है , उनको देखने से आपको यह भलीभाँति विदित हो जायेगा, कि कुरान खुदा का कलैम नहीं। यह तो किसी ऐसे व्यक्ति का कथन है जो वहाँ के निवासियों की इच्छानुसार उनकी हाँ में हाँ मिलाकर उनको अपना साथी मित्र व सहयोगी बनाना चाहता था।  अरब निवासी मद्यपान के बहुत आदी थे इसलिये उनको अपनी ओर आकर्षित करने के लिये वह यह है कि प्रथम मद्यपान (शराबखोरी) का समर्थन करना प्रारम्भ कर दिया और खुदा के नाम से एक आयत भी प्रस्तुत कर दी गयी। आयत यह है :- वा मिनस्समरा तिन्नखीले वल आनाबे तत्तखेजूना ना मिनहो सक रव्वा रिजकन हसना। :- कुरान पारा 14. रकू 9.15। अर्थ: - हम पालते हैं हम तुमको फलों से ..... खजूर और अंगूर की चर्चा करता है। तत्तखेजूना मिनहो सकरन सकर से तात्पर्य शराब है। यद्यपि सम्बोधन कुरैश मक्का की ओर है और मक्का में शराब हराम भी नहीं हुयी थी। तफसीर हक्कानी पारा 14. पृष्ठ 36। तुम्हारे हेतु है मेवों से खजूरों के और अंगूरों के जो कुछ लेते हो तुम उससे मस्त करने वाली वस्तुयें यह आयत शराब हराम होने क
*इन्द्र शब्द का अर्थ:-* लौकिक साहित्य में इन्द्र का अर्थ राजा है। पौराणिक साहित्य में इन्द्र एक कल्पित स्वर्ग का राजा है और अपनी देव कथाओं का विलासी पात्र है। *परन्तु वैदिक साहित्य में इन्द्र का अर्थ आत्मा है।* आत्मा शब्द से जीवात्मा व परमात्मा दोनों का ग्रहण होता है। यह अन्तरात्मा इन्द्र है। इसके लिये सर्व प्रसिद्ध प्रमाण देह की इन्द्रियाँ हैं जिनका नाम ही इन्द्र के आधार पर है। पाणिनी आचार्य ने इन्द्रिय शब्द की व्युत्पत्ति लिखी है - *इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा*। (पा. 5.2.93) इन्द्र आत्मा का ज्ञापक लिङ्ग, उसका देखा , उससे उत्पन्न , उससे सेवित और उसकी शक्ति से युक्त होने के कारण ही इन्द्रिय कहाते हैं। इसके अतिरिक्ति सब कथा कथानको में प्रसिद्ध पुराणगत इन्द्र कोई पदार्थ नहीं है। वह भी अलंकारिक रूप से इसी इन्द्र आत्मा के सम्पन्न, सिद्ध, ऐश्वर्यवान् आदि रूपों को दर्शाया है। दूसरा इन्द्र वह परमात्मा है जिसका वर्णन वेद में स्थान स्थान पर आता है। जैसे :- *इन्द्रो मह्ना रोदसी पप्रथच्छवा* साम. उत्त. अ 16.28.2। इस विषय में उपनिषद् का क्या मत है
*कुरान का महा-पाखंड*(पहाड़ से कुरान उतरी तो पहाड़ फट गया और डर गया)  :- प्रथमेश आर्य। लौ अन्जलना हाजल्कुरअाना अला जबलिल्लराएताहु खाशे अम्मुतसद्दे अम्मिन खश्यतिल्लाहा।           :- कुरअान पारा 28 रुकू 6 ( हशर ) अर्थ: - *यदि हम इस कुरान को किसी पहाड़ पर उतारते, तो तू देखता कि पहाड़ खुदा के भय से दब जाता और फट जाता।*          इब्ने कसीर पा. 28 पृष्ठ 36। आजकल मुसलमान लोग पहाड़ो पर भी रहते हैं। वह कुरान भी पढ़ते हैं। आज तक पहाड़ क्या कोई पत्थर भी म फटा ? क्या पहाड़ अरबी में लिखा कुरान समझता और भय खाकर फट जाता ? यह सृष्टि नियम विरुद्ध मूर्खों को बहकाने की बाते हैं।  ओ3म् शम्।
*वेद में मोहम्मद का चिह्न तक नहीं।* - प्रथमेश आर्य।  साथियों इस वेदमन्त्र का अर्थ बिल्कुल भी मोहम्मद से संबंधित नहीं। *अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रह।अहं सूर्य्य इवाजनि।* सामवेद 152वाँ मन्त्र व ऋग्वेद 8.6.10। *पदच्छेद:-* अहम् इत् हि पितुः परि मेधाम् ऋतस्य परिजग्रह।  अहम् सूर्यः इव अजनि।  *पदार्थ:-* *अहम् =मैं,* *इत् हि= ही निश्चय से* पितुः= अपने पालक पिता परमेश्वर के , ऋतस्य= सत्य, ज्ञान, वेद और शक्तिसामर्थ्य के लिये , मेधाम्= धारणावती बुद्धि को , परि- जग्रह= सब ओर के ग्रहण करूँ। अहं = मैं , सूर्य इव= सूर्य्य के समान , अजनि= हो जाऊँ।
*इन्द्र शब्द का अर्थ:-* लौकिक साहित्य में इन्द्र का अर्थ राजा है। पौराणिक साहित्य में इन्द्र एक कल्पित स्वर्ग का राजा है और अपनी देव कथाओं का विलासी पात्र है। *परन्तु वैदिक साहित्य में इन्द्र का अर्थ आत्मा है।* आत्मा शब्द से जीवात्मा व परमात्मा दोनों का ग्रहण होता है। यह अन्तरात्मा इन्द्र है। इसके लिये सर्व प्रसिद्ध प्रमाण देह की इन्द्रियाँ हैं जिनका नाम ही इन्द्र के आधार पर है। पाणिनी आचार्य ने इन्द्रिय शब्द की व्युत्पत्ति लिखी है - *इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा*। (पा. 5.2.93) इन्द्र आत्मा का ज्ञापक लिङ्ग, उसका देखा , उससे उत्पन्न , उससे सेवित और उसकी शक्ति से युक्त होने के कारण ही इन्द्रिय कहाते हैं। इसके अतिरिक्ति सब कथा कथानको में प्रसिद्ध पुराणगत इन्द्र कोई पदार्थ नहीं है। वह भी अलंकारिक रूप से इसी इन्द्र आत्मा के सम्पन्न, सिद्ध, ऐश्वर्यवान् आदि रूपों को दर्शाया है। दूसरा इन्द्र वह परमात्मा है जिसका वर्णन वेद में स्थान स्थान पर आता है। जैसे :- *इन्द्रो मह्ना रोदसी पप्रथच्छवा* साम. उत्त. अ 16.28.2। इस विषय में उपनिषद् का क्या मत है