*चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है।*
-प्रथमेश आर्य।
कः स्विदेकाकी चरति क उ स्विज्जायते पुनः।
किंस्विद्धिमस्य भेषजं किं वा ऽऽवपनं महत्॥3॥
सूर्य्य एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः।
अग्निर्हिमस्य भेषजं भूमिरावपनं महत्॥4॥
-य॰ अ॰ 23। मं॰ 9। 10॥
(कः स्वि॰) को ह्येकाकी ब्रह्माण्डे चरति कोऽत्र स्वेनैव स्वयं प्रकाशितः सन् भवतीति ? कः पुनः प्रकाशितो जायते ? हिमस्य शीतस्य भेषजमौषधं किमस्ति ? तथा बीजारोपणार्थं महत् क्षेत्त्रमिव किमत्र भवतीति प्रश्नाश्चत्वारः॥3॥
एषां क्रमेणोत्तराणि - ( सूर्य्य एकाकी॰) अस्मिन्संसारे सूर्य्य एकाकी चरति स्वयं प्रकाशमानः सन्नन्यान् सर्वान् लोकान् प्रकाशयति। तस्यैव प्रकाशेन चन्द्रमाः पुनः प्रकाशितो जायते , नहि चन्द्रमसि स्वतः प्रकाशः कश्चिदस्तीति। अग्निर्हिमस्य शीतस्य भेषजमौषधमस्तीति भूमिर्महदावपनं बीजारोपणादेरधिकरणं क्षेत्रं चेति॥4॥
(कः स्वि॰) इस मन्त्र में चार प्रश्न हैं। उन के बीच में से पहला (प्रश्न)-कौन एकाकी अर्थात् अकेला विचरता और अपने प्रकाश से प्रकाशवाला है? (दूसरा)-कौन दूसरे के प्रकाश से प्रकाशित होता है? तीसरा-शीत का औषध क्या है? और चौथा-कौन बड़ा क्षेत्र अर्थात् स्थूल पदार्थ रखने का स्थान है॥3॥
इन चारों प्रश्नों का क्रम से उत्तर देते हैं-(सूर्य एकाकी॰) (1) इस संसार में सूर्य ही एकाकी अर्थात् अकेला विचरता और अपनी ही कील पर घूमता है तथा प्रकाशस्वरूप होकर सब लोकों का प्रकाश करने वाला है। (2) उसी सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा प्रकाशित होता है। (3) शीत का औषधि अग्नि है। (4) और चौथा यह है-पृथिवी साकार चीजों के रखने का स्थान तथा सब बीज बोने का बड़ा खेत है।
वेदों में इस विषय के सिद्ध करने वाले मन्त्र बहुत हैं उन में से यहां एकदेशमात्र लिख दिया है। वेदभाष्य में सब विषय विस्तारपूर्वक आ जावेंगे॥4॥
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