Skip to main content

Posts

Showing posts from January, 2018

अष्टाध्यायीमहाभाष्य परिभाषा 1.1.50

अब (चेता स्तोता ) इन प्रयोगों में *(स्थाने अन्तरतम्)* इस सूत्र से प्रमाणकृत आन्तर्य(समानता) मानें तो ह्रस्व इकार उकार के स्थान में अकार गुण प्राप्त है इससे अभीष्ट प्रयोगों की सिद्धि नहीं  होती। इसलिये यह परिभाषा है :- 13. *यत्रानेकविधमान्तर्यं तत्र स्थानकृत एवान्तर्यं बलीयः। अष्टाध्यायी 1.1.50* *महाभाष्यस्थ* जहाँ अनेक प्रकार का अर्थात् स्थानकृत, अर्थकृत, गुणकृत और प्रमाणकृत यह चार प्रकार का आन्तर्य प्राप्त हो वहाँ जो स्थान से आन्तर्य है वही बलवान् होता है इस ये प्रमाणकृत आन्तर्य्य के हट जाने से स्थानकृत आन्तर्य्य के आश्रय से एकार ओकार गुण होकर (चेता स्तोता) प्रयोग बन जाते हैं स्थानकृत आदि के विशेष उदाहरण सन्धि विषय में लिख चुके हैं। 13। :- *साभार स्वामी दयानन्दकंत परिभाषिक*

अष्टाध्यायी 3.1.5

*सन् प्रत्ययः* 🔥 *गुप्तिज्किद्भ्यः सन्।3.1.5* प वि:- गुप्-तिज्-किद्भ्यः 5.3। सन् 1.1। अर्थ: - गुप्-तिज्-किद्भ्यः धातुभ्यः परो सन् प्रत्ययः भवति। आर्यभाषाया:- गुप्-तिज्-किद् धातुओं के सन् प्रत्यय होता है। उदाहरण: - *जुगुप्सते* निन्दा करता है। गुप् + सन्। गुप्-गुप् +सन्। गु -गुप् +स। *सन्यङोः* 6.1.9 जु -गुप्स। *कुहोश्चुः* 7.4.62 जुगुप्स + लट्। *वर्तमाने लट्* 3.1.32 जुगुप्स + शप् + त। *कर्तरि शप्* जुगुप्स +अ+ ते। *टित् आत्मनेपदानां टेरे* 3.4. ...  । जुगुप्सते। *अतो गुणे* ये पररूर अकार। *इन धातुओं से सन् प्रत्ययः अर्थविशेष में ही होता है।

अष्टाध्यायी 3.1.4

🔥 *अनुदात्तौ सुप्पितौ।3.1.4* प वि:- अनुदात्तौ 1.2। सुप्-पितौ 1.2। अर्थ: - सुपः प्रत्ययाः पितः प्रत्ययाः च अनुदात्ताः भवन्ति। इति पूर्वस्य सूत्रस्य अपवादः।  प इत् यस्य सः *पित्*। आर्यभाषाया:- सुप् प्रत्यय और पित् प्रत्यय अनुदात्त होते हैं।

अष्टाध्यायी 3.1.3

🔥 *आद्युदात्तश्च।3.1.3*   प वि:- आद्युदात्तः 1.1। च। अनुवृत्ति: - प्रत्ययः। अर्थ: -  यः च प्रत्ययः संज्ञकः स आद्युदात्तः भवति , इत्यधिकारो अयम् आ पञ्चमाध्यायपरिसमाप्ते।यस्य प्रत्ययस्य अन्यस्वरो न विहितः सः आद्युदात्तः वेदितव्यः। आर्यभाषाया:- और जिसकी प्रत्यय संज्ञा है वह आदि-उदात्त होता है। इसका पञ्चम अध्यायलकी समाप्ति पर्यन्त अधिकार है।जिस प्रत्यय का कोई अन्यस्वर विधान नहीं किया गया है उसका आद्युदात्त स्वर होता है। उदाहरण: - *क॒र्तव्य॑म्।* यहाँ तव्य प्रत्यय को आद्युदात्त स्वर होता है इसी सूत्र से।  अनुदात्त:- *क॒*। स्वरित:- *क॑*।

अष्टाध्यायी 3.1.2

🔥 *परश्च।3.1.2* प वि:- परः 1.1। च। अनुवृत्ति: - प्रत्ययः। अर्थ: - यः च प्रत्ययसंज्ञकः, सः धातोः प्रातिपदिकाद् वा परो भवति, इत्यधिकारोsयम् , आ पञ्चमाध्यायपरिसमाप्तेः। आर्यभाषा: -( च) और जिसकी की प्रत्यय संज्ञा है वह धातु अथवा प्रातिपदिक से परे होता है , इसका भी पञ्चम अध्याय की समाप्ति तक अधिकार है। उदाहरण: - तव्यत् , तव्य। *(पठितव्य)*  यहाँ तव्यत् तव्य आदि परे होते हैं पूर्व नहीं, इस सूत्र के कारण। तव्यत आदयः प्रत्ययाः पराः भवन्ति न पूर्वाः।

अष्टाध्यायी 3.1.1

🔥 *प्रत्ययः।* 3.1.1।      प वि:- प्रत्ययः 1.1।     अर्थ: -  प्रत्ययः इति अधिकारो अयम् आ पञ्चमाध्यायपरिसमाप्तेः। आर्यभाषा:- प्रत्यय यह अधिकार है। इसके आगे जो कहेंगे उनकी प्रत्यय संज्ञा जाननी चाहिये , प्रकृति, आगम,उपाधि, विकार को छोड़कर। उदाहरण:- तव्यत्, तव्य, अनीयर्, सन् इत्यादि।

तिङ् प्रत्यय

🔥  *तिङ् प्रत्ययाः*      *परस्मैपद:-*   1. तिप् ,   तस् ,   झि।    2. सिप् ,   थस् ,   थ।   3.  मिप् ,   वस् , मस्।         *आत्मनेपद:-* 1.   त ,      आताम् ,        झ।  2.   थास् ,   आथाम् ,    ध्वम्। 3.   इट् ,       वहि ,      महिङ्। सूत्र:- *तिप्तस्झिसिप्थस्थमिब्वस्मस्ताताम्झथासाथाम्ध्वमिडवहिमहिङ्।* अष्टाध्यायी 3.4.78

सुप् प्रत्यय

🔥 *सुप् प्रत्ययाः* 1.  सुँ ,        औ ,        जस्। 2.  अम् ,     औट् ,         शस्। 3.   टा ,       भ्याम् ,     भिस्।  4.   ङे ,       भ्याम् ,     भ्यस्।  5.   ङसिँ ,    भ्याम् ,    भ्यस्।  6.   ङस् ,     ओस् ,     आम्। 7.   ङि ,      ओस् ,        सुप्। सूत्र:- *स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यसङसिँभ्याम्भ्यस्ङसोयाम्ङ्योस्सुप्* अष्टाध्यायी 4.1.2

वेद में ईश्वर का स्वरूप

🔥 *ईश्वर का वेदोक्त स्वरूप* *स पर्यागच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरँ् शुद्धमपापविद्धम्।* *कविर्मनीषी परिभूः स्वम्भूर्याथातथ्यतोsर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।* यजुर्वेद 40.8। 🔥 इस मन्त्र का देवता:- आत्मा है।देवता = प्रतिपाद्य विषय। *आर्यभाषा पदार्थ:-* हे मनुष्योः! जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान (अकायम्) स्थूल-सूक्ष्म और कारण शरीर रहित (अव्रणम्) छिद्ररहित और नहीं छेद करने योग्य (अस्नाविरम्) नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित (शुद्धम्) अविद्यादि दोषों से रहित होने सदा पवित्र और (अपापविद्धम्) जो पापयुक्त , पापकारी और पाप में प्रीति करने वाला कभी नहीं होता *(परि, अगात्)* सब ओर से व्याप्त जो *(कविः)* सर्वज्ञ *(मनीषी)* सब जीवों की मनोंवृत्तियों को जानने वाला *(परिभूः)* दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला और *(स्वयम्भूः)*अनादि स्वरूप जिसकी 🔥 *संयोग से उत्पत्ति , वियोग से विनाश, माता , पिता , गर्भवास, जन्म, वृद्धि और मरण नहीं होते* वह परमात्मा (शाश्वतीभ्यः) सनातन अनादिस्वरूप अपने स्वरूप उत्पत्ति और विनाशरहित (समाभ्यः) प्रजाओं के लिये (याथातथ्यतः) यथार्थभाव से (अर्थान्)

मातृ ऋकारान्त स्त्रीलिङ्ग

मातृ। ऋकारान्त स्त्रीलिङ्ग। 1. माता। मातरौ। मातरः। 2. मातरम्। मातरौ। मात्(दीर्घ ऋ)ः। 3. मात्रा। मातृभ्याम्। मातृभिः।  4. मात्रे।  मातृभ्याम्। मातृभ्यः। 5. मातुः। मातृभ्याम्।  मातृभ्यः। 6. मातुः। मात्रोः। मातृणाम्। 7. मातरि। मात्रोः। मातृषु।  संबोधन्:- हे मात! हे मातरौ! हे मातरः!

मरुत् तकारान्त पुल्लिङ्ग या स्त्रीलिङ्ग

मरुत्। तकारान्त पुल्लिङ्ग या स्त्रीलिङ्ग।   1. मरुत्-मरुद्।  मरुतौ। मरुतः। 2. मरुतम्। मरुतौ। मरुतः। 3. मरुता। मरुद्भ्याम्। मरुद्भिः। 4. मरुते। मरुद्भ्याम्। मरुद्भ्यः। 5. मरुतः। मरुद्भ्याम्। मरुद्भ्यः। 6. मरुतः। मरुतोः। मरुताम्। 7. मरुति। मरुतोः। मरुत्सु।

छकारान्त प्राच्छ पुल्लिङ्ग या स्त्रीलिङ्ग

प्राछ्। छकारान्त, पुल्लिङ्ग या स्त्रीलिङ्ग।  (=पूछने वाले का नाम। 1. प्राट्-प्राड्। प्राच्छौ। प्राच्छः।  2. प्राच्छम्। प्राच्छौ। प्राच्छः।  3. प्राच्छा।  प्राड्भ्याम्। प्राड्भिः।  4. प्राच्छे। प्राड्भ्याम्।  प्राड्भ्यः।  5. प्राच्छः। प्राड्भ्याम्। प्राड्भ्यः। 6. प्राच्छः। प्राच्छोः। प्राच्छाम्। 7. प्राच्छि।  प्राच्छोः। प्राट्सु-प्राट्त्सु।

आदि और अन्त का लक्षण

*आदि और अन्त का लक्षण:-* *प्रश्न :-*आदि और अन्त का लक्षण क्या है? *उत्तर: -*यस्मात् पूर्व नास्ति परमस्ति स आदिरित्युच्यते।यस्मात् पूर्मस्ति परं च नास्ति सोsन्त इत्युच्यते। *महाभाष्य अ. 1 पा 1।सू 21।* जिसके पूर्व कुछ न हो और पर हो वह आदि कहाता है। और जिसके पूर्व कुछ है और पर नहीं है उसको अन्त कहते हैं।

उदात्त व अनुदात्त का लक्षण

*उदात्त और अनुदात्त का लक्षण*    पाणिनीय अष्टाध्यायी में *उच्चैरुदात्त*(1.2.29) *नीचैरनुदात्त* (1.2.30)  ये उदात्त और अनुदात्त स्वरों के लक्षण हैं।इन सूत्रों का प्रायशः यह अर्थ समझा जाता है कि जो अकार आदि स्वर ऊँची ध्वनि से उच्चारण किया जाये वह 'उदात्त' है और जो नीची ध्वनि से उच्चारण किया जाये वह 'अनुदात्त' है, किन्तु ऐसा नहीं है।इन सूत्रों की व्याख्या में महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं- *इदमुच्चनीचनवस्थितपदार्थकम्।तदेव कञ्चित् प्रत्युच्चैर्भवति , कञ्चित् प्रति च नीचैः।एवं हि कश्चित् कञ्चिदधीयानमाह- किमुच्चै रोरूयसे शनैर्वर्ततामिति। तमेव तथाsधीयानमपर आह किमन्तर्दन्तकेनाधीषे उच्चैर्वर्ततामिति।एवमुच्चनीचमनवस्थितपदार्थकम्, तस्यानवस्थित्वात् संज्ञायाः अप्रसिद्धिः।* (महाभाष्य 1.2.21) अर्थ: - ऊँचा और नीचा एक अनवस्थित ( अनिश्चित) पदार्थ है क्योंकि वही किसी के लिये ऊँचा और वही किसी के लिये नीचा भी हो सकता है। जैसे कोई किसी पढ़ते हुये छात्र से कहता है कि-' क्यों ऊँचा चिल्लाते हो , धीरे-धीरे पढ़ो।' फिर उसी छात्र को वैसा पढ़ते हुये देखकर कोई कहने लगा कि -' क्या दाँतो के अ

उदात्त व अनुदात्त का लक्षण

*उदात्त और अनुदात्त का लक्षण*    पाणिनीय अष्टाध्यायी में *उच्चैरुदात्त*(1.2.29) *नीचैरनुदात्त* (1.2.30)  ये उदात्त और अनुदात्त स्वरों के लक्षण हैं।इन सूत्रों का प्रायशः यह अर्थ समझा जाता है कि जो अकार आदि स्वर ऊँची ध्वनि से उच्चारण किया जाये वह 'उदात्त' है और जो नीची ध्वनि से उच्चारण किया जाये वह 'अनुदात्त' है, किन्तु ऐसा नहीं है।इन सूत्रों की व्याख्या में महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं- *इदमुच्चनीचनवस्थितपदार्थकम्।तदेव कञ्चित् प्रत्युच्चैर्भवति , कञ्चित् प्रति च नीचैः।एवं हि कश्चित् कञ्चिदधीयानमाह- किमुच्चै रोरूयसे शनैर्वर्ततामिति। तमेव तथाsधीयानमपर आह किमन्तर्दन्तकेनाधीषे उच्चैर्वर्ततामिति।एवमुच्चनीचमनवस्थितपदार्थकम्, तस्यानवस्थित्वात् संज्ञायाः अप्रसिद्धिः।* (महाभाष्य 1.2.21) अर्थ: - ऊँचा और नीचा एक अनवस्थित ( अनिश्चित) पदार्थ है क्योंकि वही किसी के लिये ऊँचा और वही किसी के लिये नीचा भी हो सकता है। जैसे कोई किसी पढ़ते हुये छात्र से कहता है कि-' क्यों ऊँचा चिल्लाते हो , धीरे-धीरे पढ़ो।' फिर उसी छात्र को वैसा पढ़ते हुये देखकर कोई कहने लगा कि -' क्या दाँतो के अ

स्वरित का लक्षण

*स्वरित का लक्षण* पाणिनी मुनि ने स्वरित का यह लक्षण किया है कि *समाहारः स्वरितः* 1.2.31 अर्थात् उक्त उदात्त और अनुदात्त का दो समाहार = सम्मिश्रण है , वह स्वरित कहलाता है।स्वरित की रचना में कितनी मात्रा उदात्त में और कितनी मात्रा में अनुदात्त है, इस तथ्य को समझाने के लिये पाणिनी मुनि लिखते हैं।- *तस्यादित उदात्तमर्धह्रस्वम्* (1.2.32) स्वरित के प्रारम्भ में आधी मात्रा भाग उदात्त और अन्त में शेष मात्रा भाग अनुदात्त होता है।जैसे कि *कन्या॑* शब्द में *आ* स्वरित है।इसके आदि में 1/2 आधी मात्रा उदात्त है और शेष 3/2 मात्रा अनुदात्त है।ऐसा ही सर्वत्र समझें।पाणिनी मुनि के स्वरविषयक इस सूक्ष्म लेख की स्तुति नें महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-  *तद्यथा क्षारोदके सम्पृक्ते आमिश्रीभूतत्वान्न ज्ञायते-कियत् क्षीरम् , कियदुदकम् कस्मिन्नवकाशे क्षीरम्, कस्मिन् वोदकमिति ? एवमिहाप्यामिश्रीभूतत्वान्न ज्ञायते - कियदुदात्तम् , कियदनुदात्तम्, कस्मिन्नवकाशे उदात्तम्, कस्निन्नवकाशे अनुदात्तम्? तदाचार्य सुह्रद् भूत्वाsन्वाचष्टे- इयदुदात्तमियदनुदात्मस्मिन्नवकाशे उदात्तम् अस्मिन्नवकाशे अनुदात्तम्।* (महाभाष्यम् 1.2.33) अ