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उदात्त व अनुदात्त का लक्षण

*उदात्त और अनुदात्त का लक्षण*
   पाणिनीय अष्टाध्यायी में *उच्चैरुदात्त*(1.2.29) *नीचैरनुदात्त* (1.2.30)  ये उदात्त और अनुदात्त स्वरों के लक्षण हैं।इन सूत्रों का प्रायशः यह अर्थ समझा जाता है कि जो अकार आदि स्वर ऊँची ध्वनि से उच्चारण किया जाये वह 'उदात्त' है और जो नीची ध्वनि से उच्चारण किया जाये वह 'अनुदात्त' है, किन्तु ऐसा नहीं है।इन सूत्रों की व्याख्या में महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-
*इदमुच्चनीचनवस्थितपदार्थकम्।तदेव कञ्चित् प्रत्युच्चैर्भवति , कञ्चित् प्रति च नीचैः।एवं हि कश्चित् कञ्चिदधीयानमाह- किमुच्चै रोरूयसे शनैर्वर्ततामिति। तमेव तथाsधीयानमपर आह किमन्तर्दन्तकेनाधीषे उच्चैर्वर्ततामिति।एवमुच्चनीचमनवस्थितपदार्थकम्, तस्यानवस्थित्वात् संज्ञायाः अप्रसिद्धिः।* (महाभाष्य 1.2.21)
अर्थ: - ऊँचा और नीचा एक अनवस्थित ( अनिश्चित) पदार्थ है क्योंकि वही किसी के लिये ऊँचा और वही किसी के लिये नीचा भी हो सकता है। जैसे कोई किसी पढ़ते हुये छात्र से कहता है कि-' क्यों ऊँचा चिल्लाते हो , धीरे-धीरे पढ़ो।' फिर उसी छात्र को वैसा पढ़ते हुये देखकर कोई कहने लगा कि -' क्या दाँतो के अंदर -अन्दर पढ़ते हो, ऊँचे स्वर में पढ़ो' अतः यह ऊँचा है और यह नीचा है एक अनवस्थित पदार्थ है , अतः उदात्त अनुदात्त की संज्ञा सिद्धि नहीं हो सकती।
इस शंका के समाधान में महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं- *सिद्धं तु समानप्रक्रमवचनात्।सिद्धमेतत्। कथम्? समानप्रक्रम इति वक्तव्यम्।कः पुनः प्रक्रमः? उरः कण्ठः शिर इति।*
अर्थ: - समान प्रक्रम के कथन से उदात्त अनुदात्त संज्ञाओं की सिद्धि होती है।यहाँ प्रक्रम शब्द *स्थान* अर्थ का वाचक है।और समान शब्द का अर्थ ' एक ' है। कंठ और तालु आदि प्रत्येक स्थान ऊँचे और नीचे भागों से युक्त हैं। *उच्चैरुदात्तः* इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि कण्ठ आदि स्थानों के ऊँचे भाग के उच्चारण किया जाने वाला अकारादि स्वर उदात्त कहाता है।और *नीचैरनुदात्तः* इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि कण्ठ आदि उच्चारण स्थान के नीचे भागों से उच्चारण किया जाने वाला अकारादि स्वर अनुदात्त कहाता है। *ध्वनि के ऊँचा और नीचा होनो से उदात्त और अनुदात्त स्वर नहीं बनता।*
उदात्त और अनुदात्त की उच्चारण-विधि के सम्बन्ध में महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-

1. *आयामो दारुण्यमणुता।खस्येत्युच्चैःकराणि शब्दस्य।आयामो गात्राणां निग्रहः।दारुण्यं स्वरस्य , दारुण्यं रूक्षता।अणुता खस्य, कण्ठस्य संवृतता।उच्चैःकराणि शब्दस्य।* (महाभाष्यम् 1.2.29)
अर्थ: - कंठ का आयाम , दारुणता और अणुता ये तीन अकारादि स्वरों के उच्चैर्भाव में कारण हैं।गात्र=शरीर के अवयवों का निग्रह *आयाम* कहलाता है।स्वर की रूक्षता को *दारुणता* कहते हैं।और कण्ठ की संवृतता (बंद होना) *अणुता* कहाती है।
2. *अन्ववसर्गो मार्दवमुरुता खस्येति नीचैःकराणि शब्दस्य।* (महाभाष्यम् 1.2.30) अर्थ:- कंठ का अन्ववसर्ग, मार्दव और उरुता ये तीन अकारादि स्वरों के नीचैर्भाव के कारण हैं।गात्र= शरीर के अवयवों की शिथिलता *अन्ववसर्ग* कहाता है।स्वर की कोमलता तो *मार्दव* कहते हैं।कंठ की विवृतता(खुला होना) *उरुता* कहाता है।

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