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अष्टाध्यायी 1.3.20

🔥 *आङो दोsनास्यविहारणे।1.3.20*
🔥 प वि:- आङः 5.1। दः 5.1। अनास्यविहारणे 7.1। 
🔥 अर्थ: - आस्य विहरणं इति आस्यविहरणं। न आस्यविहरणं इति -अनास्यविहरणे। तस्मिन् -अनास्यविहरणे।  अनास्यविहरणेsर्थे आङ्-उपसर्गपूर्वाद् दा-धातो कर्तरि आत्मनेपदं भवति।
🔥 आर्यभाषा: - मुख-खोलना अर्थ को छोड़कर आङ्-उपसर्गपूर्वक दा-धातु से कर्तृवाच्य में आत्मनेपद होता है।
🔥 उदाहरण: - विद्याम् *आदत्ते*।  विद्या को ग्रहण करता है। आङ् +डुदाञ्+लट्। आ+दा+त। आ+दा+शप्+त।  आ+दा+0+त। आ+दा+दा+ते। आ+द+द्+ते। आदत्ते। 
यहाँ शप् को श्लु होने पर धातु को द्विर्वचन होता है। *श्लौ*  6.1.10 सूत्र से।

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