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अष्टाध्यायी 1.3.34

🔥 *वेः शब्दकर्मणः।1.3.34*
🔥 प वि:- वेः 5.1। शब्दकर्मणः 5.1।
🔥 अनु.:- कृञः। 
🔥 अर्थ: - वि-उपसर्गपूर्वाद् शब्दकर्मकात् कृञो धातोः कर्तरि आत्मनेपदं भवति।
🔥 आर्यभाषा: - वि-उपसर्गपूर्वक शब्दकर्मवाली कृञ् धातु से कर्तृवाच्य में आत्मनेपद होता है।
🔥 उदाहरण: - क्रोष्टा स्वरान् विकुरुते। गीदड़ स्वरो को बिगाड़ता है।

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