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अष्टाध्यायी 1.3.35

🔥 *अकर्मकाच्च।1.3.35*
🔥 प वि:- अकर्मकात् 5.1। च।
🔥 अनु.:- वेः, कृञः।
🔥 अर्थ: - वि-उपसर्गपूर्वाद् अकर्मकात् कृञः धातोः कर्तरि आत्मनेपदं भवति।
🔥 आर्यभाषा: - वि-उपसर्ग से परे अकर्मक कृञः धातु ये कर्तृवाच्य में आत्मनेपद होता है। 
🔥 उदाहरण: - विकुर्वते सैन्धवाः। घोड़े हिनहिनाते हैं।

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