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अष्टाध्यायी 1.3.57

🔥 *ज्ञाश्रुस्मृदृशां सनः।1.3.57*
🔥 प वि:- ज्ञा-श्रु-स्मृ-दृशाम् (पंचमी-अर्थे) 6.3। सनः 5.1।
🔥 अर्थ: - सन्नन्तेभ्योः ज्ञा-श्रु-स्मृ-दृश्भ्यो धातुभ्यः कर्तरि आत्मनेपदं भवति।
🔥 आर्यभाषा: - सन् प्रत्ययान्त ज्ञा-श्रु-स्मृ-दृश् धातुओं से कर्तृवाच्य में आत्मनेपद होता है। 
🔥 उदाहरण: - धर्मं *जिज्ञासते*। धर्म को जानना चाहता है।
राजनं *दिदृक्षते*।राजा को देखना चाहता है।
दिदृक्षते।
दृशिँर् +सन्।
दृश् +स।
दृश्+दृश्+स। *सन्यङोः*
दृ+दृष्+स।
द+दृष् +स। *वृश्च....8.2.36*
दि+दृक्+स। *षढोः कः सि*
दि+दृक्+ष। *आदेशप्रत्ययोः*
दिदृक्ष।
दिदृक्ष+लट्। *वर्तमाने लट्*
दिदृक्ष+त। *तिप्तस....*
दिदृक्ष+शप् +ते। *टित आत्मनेपदानां टेरे* *कर्तरि शप्*
दिदृक्षते।

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