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🔥 *पाखंडी तथाकथित मूलनिवासी दर्प भंजन निश्चित हैं।* -प्रथमेश आर्य। *म1.आ1*
नमस्ते सत्यान्वेशी मित्रों!

पहले मैं दो तीन बातों को स्पष्ट कर देता हूँ फिर काल्पनिक मूलनिवासीवाद का दर्प भंजन आरम्भ करूंगा।
1. *पुराण*  :- सभी बहुजन और सवर्ण भलीभाँति सुन लें कि मैं अपने लेख पुराण शब्द से शतपथ, ऐतरेय, गोपथ व साम ब्राह्मण ग्रंथों का ही ग्रहण करता हूँ।क्योंकि ऐया करना तर्क संगत व प्रमाणों से युक्त है। अधिक जानकारी के लिये *महर्षि दयानंद कृत ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका* की *वेदसंज्ञा* देखें।
और *श्रीमद्भागवतादि दो 18 पुराण हैं* उनमें बहुत सी असंभव , काल्पनिकव अश्लील कथायें लिखी हैं। अधिक जानकारी के लिये मनसाराम वैदिक जी की  *पौराणिक पोल प्रकाश* पढ़ें अन्यथा स्वयं पुराण पढ़ लें।फिर ये 18 भागवतादि 18 ग्रंथों को पुराण मानने में निरुक्त व निघंटु का कोई प्रमाण नहीं।हाँ वहाँ पुराणों के लक्षण दिये हैं ,जो शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रंथो पर ही घटते हैं भागवतादि पर नहीं।
इदं वा अग्रे नैव किञ्चिदासीत्॥

-इत्यादीनि जगतः पूर्वावस्था-कथनपूर्वकाणि वचनानि ब्राह्मणान्तर्गतान्येव पुराणानि ग्राह्याणि।

कल्पा मन्त्रार्थसामर्थ्यप्रकाशकाः। तद्यथा -

इषे त्वोर्जे त्वेति वृष्ट्यै तदाह यदाहेषे त्वेत्यूर्जे त्वेति यो वृष्टादूर्ग्रसो जायते तस्मै तदाह। सविता वै देवानां प्रसविता सवितृप्रसूताः॥

-श॰ कां॰ 1। अ॰ 7।

इत्यादयो ग्राह्याः।

गाथा याज्ञवल्क्य-जनकसंवादो यथा शतपथब्राह्मणे गार्गीमैत्रेय्यादीनां परस्परं प्रश्नोत्तर-कथनयुक्ताः सन्तीति।

नाराशंस्यश्च , अत्राहुर्यास्काचार्याः -

नराशंसो यज्ञ इति काथक्यो नरा अस्मिन्नासीनाः शंसन्त्यग्निरिति शाकपूणिर्नरैः प्रशस्यो भवति॥

-निरु॰ अ॰ 8। खं॰ 6।

नॄणां यत्र प्रशंसा नृभिर्यत्र प्रशस्यते ता ब्राह्मण-निरुक्ताद्यन्तर्गताः कथा नाराशंस्यो ग्राह्या नातोऽन्या इति।

किञ्च तेषु तेषु वचनेष्वपीदमेव विज्ञायते यत् यस्माद् ब्राह्मणानीति संज्ञीपदमितिहासादि- स्तेषां संज्ञेति। तद्यथा - ब्राह्मणान्येवेतिहासान् जानीयात् पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीश्चेति।

भाषार्थ - और इस हेतु से ब्राह्मणग्रन्थों का ही इतिहासादि नाम जानना चाहिये, श्रीमद्भागवतादि का नहीं।

प्र॰ - जहां जहां ब्राह्मण और सूत्रग्रन्थों में (यद्ब्राह्मण॰) इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा, नाराशंसी इत्यादि वचन देखने में आते हैं तथा अथर्ववेद में भी इतिहास, पुराणादि नामों का लेख है, इस हेतु से ब्राह्मणग्रन्थों से भिन्न ब्रह्मवैवर्त, श्रीमद्भागवत, महाभारतादि का ग्रहण इतिहास पुराणादि नामों से क्यों नहीं करते हो?

उ॰ - इन के ग्रहण में कोई भी प्रमाण नहीं है। क्योंकि उन में मतों के परस्पर विरोध और लड़ाई आदि की असम्भव मिथ्या कथा अपने अपने मत के अनुसार लोगों ने लिख रक्खी हैं। इस से इतिहास और पुराणादि नामों से इनका ग्रहण करना किसी मनुष्य को उचित नहीं।

जो ब्राह्मणग्रन्थों में (देवासुराः संयत्ता आसन्) अर्थात् 'देव विद्वान् और असुर मूर्ख ये दोनों युद्ध करने को तत्पर हुए थे' इत्यादि कथाओं का नाम इतिहास है।

(सदेव सो॰) अर्थात् जिसमें जगत् की उत्पत्ति आदि का वर्णन है उस ब्राह्मण भाग का नाम पुराण है।

(इषे त्वोर्जे त्वेति वृष्ट्यै॰) जो वेदमन्त्रों के अर्थ अर्थात् जिनमें द्रव्यों के सामर्थ्य का कथन किया है, उन का नाम 'कल्प' है।

इसी प्रकार जैसे शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य, जनक, गार्गी, मैत्रेयी आदि की कथाओं का नाम 'गाथा' है।

और जिन में नर अर्थात् मनुष्य लोगों ने ईश्वर, धर्म आदि पदार्थविद्याओं और मनुष्यों की प्रशंसा की है, उन को 'नाराशंसी' कहते हैं।

(ब्राह्मणानीतिहासान्॰) इस वचन में 'ब्राह्मणानि' संज्ञी और इतिहासादि संज्ञा है अर्थात् ब्राह्मणग्रन्थों का नाम इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी है। सो ब्राह्मण और निरुक्तादि ग्रन्थों में जो जो जैसी कथा लिखी हैं, उन्हीं का इतिहासादि से ग्रहण करना चाहिए, अन्य का नहीं।

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