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*वर्ण व्यवस्था* का यथार्थ
:-
       -प्रथमेश आर्य।
नमस्ते मित्रों!  
*वर्णो वृणोतेः*॥1॥

-निरु॰ अ॰ 2। खं॰ 3॥
 *वर्णो वृणोतेरिति *निरुक्तप्रामाण्याद्वरणीया वरीतुमर्हा ,गुणकर्माणिच दृष्ट्वा यथायोग्यं व्रियन्ते ये ते वर्णाः॥1॥*
           - ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (वर्णाश्रमधर्मविषय)
🔥(वर्णो॰) इन का नाम वर्ण इसलिए है  जैसे जिस के *गुण कर्म* हों, *वैसा ही उस को अधिकार देना चाहिए।* (ब्रह्म हि ब्रा॰) ब्रह्म अर्थात् उत्तम कर्म करने से उत्तम विद्वान् ब्राह्मण वर्ण होता है। (क्षत्रं हि॰) परम ऐश्वर्य (बाहू॰) बल वीर्य के होने से मनुष्य क्षत्रिय वर्ण होता है, जैसा कि राजधर्म में लिख आये हैं॥1-3॥

🔥 *ब्राह्मण कौन*?
      *ब्रह्मन्* प्रातिपदिक से "तदधीते तद्वेद"(अष्टाध्यायी 4.2.59)  अर्थ में "अण्" प्रत्यय के योग से "ब्राह्मण " शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति है- "ब्रह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन च सह वर्तमानो विद्यादि उत्तमगुणः युक्त पुरुषः " अर्थात् *वेद और परमात्मा के अध्ययन और उपासना में तल्लीन रहते हुये विद्यादि उत्तमगुणों को धारण करने से व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है।*  🔥 अतः यह स्पष्ट है कि ब्राह्मण होना जाति से नहीं अपितु *गुण कर्म*से निर्धारित होता है।
🔥ब्राह्मण ग्रंथों के वचनों में भी वर्णों के कर्मों का वर्णन पाया जाता है।  निम्न वचनों में ब्राह्मण के कर्म उद्दिष्ट हैं। -
1. आग्नेयो ब्राह्मणः।(तांड्य ब्राह्मण 15.4.8) । आग्नेयो हि ब्राह्मणः। (काठक 29.10) = *यज्ञाग्नि(पवित्र कर्म) से संबंध रखने वाला अर्थात् यज्ञकर्ता ब्राह्मण होता है*।
2. ब्राह्मणो व्रतभृत्। ( तैतरीय संहिता 1.6.7.2) । व्रतस्य रूपं यत् सत्यम्। (शतपथ 12.8.2.4) = *ब्राह्मण श्रेष्ठ व्रतों= कर्मों को धारण करने वाला होता हैं। सत्य बोलना व्रत का एक रूप है।* 
3. गायत्रो वै ब्राह्मणः (ऐतरेय ब्राह्मण 1.28)  । गायत्रो यज्ञः। (गोपथ पू. 4.24) । गायत्रो वै बृहस्पतिः (तां. 5.1.15)। ब्राह्मण गायत्र होता है। गायत्र यज्ञ वेद और परमात्मा को कहते हैं।

🔥 अतः यह सिद्ध हुआ कि *ब्राह्मण कर्म से बना* जाता है।  जन्म से कोई ब्राह्मण आदि नहीं होता।  *अतः आज जो भी उपर्युक्त नियमों प्रतिबंधों को पूर्ण करता है वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है। चाहें किसी भी जाति का हो।*
ओ3म्।

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